भारत कई तरह की असमानताओं से जूझता हुआ देश है। इन गैरबराबरियों में आर्थिक भेदभाव के अलावा जातिगत असमानता तो है ही, लैंगिक भेदभाव बेहद विकराल रूप में है। कमोबेश सभी तरह की महिलाओं को किसी न किसी रूप में इसका सामना करना ही पड़ता है। शहरी हो या ग्रामीण, साक्षर हो या निरक्षर या अल्प शिक्षित, वह कथित ऊंची जाति की हो या फिर निचली जाति की- प्रत्येक महिला आजीवन उससे हर कदम पर दो-चार होती है। माना जाता है कि आत्मनिर्भरता स्त्रियों को पुरुषों के समकक्ष ला सकती है लेकिन वहां भी उनकी राह इतनी आसान नहीं है। असमानता का दंश वहां भी मौजूद है। वर्ल्ड इकॉनामिक फोरम की बुधवार को जारी रिपोर्ट में बतलाया गया है कि भारत में पुरुषों की तुलना में महिलाओं की आय 60 फीसदी कम है। यह अंतर इतना अधिक है कि इसके बल पर कोई भी सभ्य समाज अपने यहां लैंगिक बराबरी का दावा बिलकुल नहीं कर सकता। यह शर्मनाक भी है। सरकार को इस ओर ध्यान देकर वे सारे उपाय करने चाहिये जो पुरुष-महिला के बीच मेहनताने की इस खाई को मिटा सकें।वैसे यह रिपोर्ट देश में लैंगिक असमानता की स्थिति की पोल को खोलती है। 146 देशों की सूची में भारत 129 वें स्थान पर खड़ा है। पिछले वर्ष वह 125वें पायदान पर था। इसका सीधा सा अर्थ है कि यह देश महिलाओं को देवी मानने को लिये तो तैयार है लेकिन उसे मनुष्य के रूप में उसके वे अधिकार देने को तैयार नहीं है जिसकी शुरुआत हर प्रकार की समानता से होती है। इस रिपोर्ट ने भारत को उन देशों के समूह में रखा है जहां लैंगिक असमानता सर्वाधिक है। उसे 0.398 अंक मिले हैं जो बहुत खराब प्रदर्शन है। इसमें कहा गया है कि जिस काम के लिये पुरुष को 100 रुपये मिलते हैं, महिला को 52 ही मिलते हैं। उसका योगदान भी बामुश्किल 40 फीसदी ही है। इस क्षेत्र में भारत की स्थिति केवल पाकिस्तान, ईरान, सूडान एवं बांग्लादेश से ही बेहतर बताई गई है।
वैसे महिलाओं की आर्थिक बदहाली व पुरुषों के नीचे ही उसे बनाये रखने का प्रमुख कारण व आधार इस समाज की पुरुषवादी सोच ही है। पूरा ही पूरा सामाजिक ढांचा इन्हीं असमानताओं पर खड़ा है। सामंती एवं धार्मिक- इन दो तत्वों से बना भारतीय समाज उन तीनों ही तरह की गैरबराबरियों को बनाये रखने का हिमायती है जिसका उल्लेख ऊपर किया गया है। समाज को हांकने वाले धर्म व राजनीति में काम करने वाले जानते हैं कि महिलाओं के पुरुषों की बराबरी में आने का मतलब होगा इस शोषण आधारित व्यवस्था का चरमराकर ढह जाना। इसलिये वे यथास्थिति को बनाये रखते हैं। जितने भी तरह की धार्मिक व नीति कथाएं बतलाई जाती हैं उनमें औरतों को त्याग करने वाली, अल्प संतोषी, पुरुषों, खासकर पिता व पति की सेवा में अपना जीवन खपाने-मिटाने वाली महिलाओं को महिमा मंडित किया जाता है। उन्हें आत्मनिर्भरता के अलावा सारा कुछ सिखाया जाता है। घर में खानपान से लेकर शिक्षा-दीक्षा तक लड़कों व लड़कियों में भेदभाव होता देखकर वे बच्चियां बड़ी होकर इसी परम्परा को आगे बढ़ाती हैं। लड़कियों की पढ़ाई यह कहकर छुड़ा दी जाती है कि श्यह तो लड़की है, इतना पढ़कर क्या करेगी या फिर, उसे कौन सी नौकरी करनी है… आदि। लड़कियों को इस काबिल ही नहीं बनाया जाता कि वे नौकरी कर सकें।
संगठित क्षेत्रों में तो कानूनों के कारण वेतन, भत्तों व सुविधाओं में समानता देखी जा सकती है लेकिन वहां उनका प्रतिशत बहुत कम है। बड़ी कम्पनियों में लैंगिक अनुपात की स्थिति बेहद खराब है। आगे बढ़ने के अवसर भी उनके लिये पुरुषों के मुकाबिल कम ही होते हैं। महत्वपूर्ण पद एवं जिम्मेदारियां उन्हें नहीं मिलतीं। यहां तक कम्पनियों के बोर्ड में तक महिलाएं उद्योगपतियों के परिवारों की ही होंगी। शासकीय कम्पनियों में तक यही परिदृश्य है। असंगठित क्षेत्रों में हालत ज्यादा खराब है। पुरुषों की तुलना में उन्हें रोजगार तो कम मिलते ही हैं, वेतन-पारिश्रमिक में भी व्यापक असमानता है जिसका समग्र असर न सिर्फ उनके जीवन स्तर पर पड़ता है बल्कि उसकी अन्य असमानताओं के खिलाफ की जाने वाली लड़ाइयां भी कमजोर पड़ जाती हैं। आश्चर्य की बात तो यह है कि महिलाओं के साथ होने वाला यह भेदभाव केवल भारत में नहीं बल्कि दुनिया भर में है। अलबत्ता अच्छी शिक्षा एवं नागरिक अधिकारों के प्रति सजग जिन देशों ने अपने लिये काफी हद तक समतामूलक समाज बनाया है, वहां महिलाओं की राह अपेक्षाकृत आसान हो चली है, पर तीसरी दुनिया कहे जाने वाले ज्यादातर एशियाई, अफ्रीकी तथा लैटिन अमेरिकी देशों में महिलाएं बहुत पीछे चल रही हैं। रिपोर्ट के अनुसार, असमानता की यह डगर इतनी लम्बी है कि उसे पार करने में यूरोप को 67, उत्तर अमेरिकी को 95 तथा लातिनी अमेरिका व कैरेबियाई देशों को 53 साल लगेंगे। भयावह स्थिति तो दक्षिण एशियाई देशों की है जिनमें भारत का भी शुमार है। इनमें लैंगिक असमानता को पाटने में 149 वर्ष लग जायेंगे। सर्वाधिक खराब स्थिति पूर्वी एशिया के देशों में है जिनके लिये यह अवधि 189 साल आंकी गई है। रिपोर्ट बतलाती है कि ज्यादातर देशों में लोकतंत्र की स्थापना और वैज्ञानिक-तकनीकी तरक्की के बाद भी पूरी दुनिया के लिये लैंगिक असमानता चिंता का प्रमुख मुद्दा बना हुआ है। संविधान में तो सभी को एक से अधिक अधिकार दिये गये हैं लेकिन पितृसत्तात्मक सोच के कारण औरतें वह सब हासिल नहीं कर पा रही हैं जिनकी वे मनुष्य होने के नाते हकदार हैं। विकास की मलाई का प्रमुख हिस्सा अब भी पुरुष पाते हैं।
