यूपी की इस सीट पर सपा हवा का रुख नहीं भांप पाई। बूथ मैनेजमेंट, मुस्लिम मतों में सेंध और सपा की अंतर्कलह भाजपा की जीत की बड़ी वजह बनी। भाजपा प्रत्याशी की मुस्लिम मतदाताओं से रिश्ते भी काम आए।सपा अपने गढ़ कुंदरकी में इस बार हवा का रुख नहीं भांप पाई। भाजपा का बूथ मैनेजमेंट, मुस्लिम मतों तक उसकी पहुंच और सपा की अंतर्कलह से बाजी ही पलट गई। शेख और तुर्कों के आपसी अंतर्विरोध ने भी सपा को नुकसान पहुंचाया और तीन दशक बाद यह सीट भाजपा की झोली में 1.70 लाख से ज्यादा मतों के अंतर से चली गई।कुंदरकी में मुस्लिमों को रिझाने के लिए जहां भाजपा ने मुस्लिम पन्ना प्रमुख बनाए, अल्पसंख्यक सम्मेलन करवाया, वहीं उसके प्रत्याशी रामवीर सिंह का बूथ मैनेजमेंट व मुस्लिम मतदाताओं से उनके जुड़ाव ने इतिहास रच दिया। इस सीट पर लगातार दो चुनाव हारने और 2022 के चुनाव में टिकट कटने के बाद भी रामवीर क्षेत्र में डटे रहे। भाजपा से दूर रहने वाले मुस्लिम मतदाताओं को जोड़ना उनकी अहम रणनीति रही। मुस्लिमों में हाजी रिजवान के विरोध को भांपते हुए चुनाव को भाजपा बनाम सपा नहीं बनने दिया। इस सीट को जीतने के लिए सीएम योगी ने जिन चार मंत्रियों धर्मपाल सिंह, गुलाब देवी, जेपीएस राठौर और जसवंत सैनी को जिम्मेदारी सौंपी थी, वे भी वहीं डेरा डाले रहे। इससे भाजपा के स्थानीय कार्यकर्ताओं की हौसला अफजाई होती रही।
सपा के परंपरागत मुस्लिम मतों पर ही रहीं सबकी नजरें
इसका असर यह हुआ कि रिकॉर्ड मतों से चुनाव जीतकर रामवीर कुंदरकी से भाजपा के दूसरे विधायक बने। इससे पहले कुंदरकी से भाजपा को 1993 में चंद्र विजय सिंह ने जीत दिलाई थी। करीब 65 फीसदी मुस्लिम आबादी वाली इस सीट पर सभी की नजरें सपा के परंपरागत मुस्लिम मतों पर ही रहीं।भाजपा को छोड़ सभी प्रमुख दलों ने मुस्लिम प्रत्याशियों पर ही दांव लगाया। निर्दलीय उम्मीदवार भी मुस्लिम जमात से ही रहे। वहीं सम्मेलनों में रामवीर सिंह का टोपी लगाकर मंच पर बैठना भी मुस्लिमों से भाजपा की दूरी को कम करने में कारगर साबित हुआ। इससे मुस्लिम मतदाताओं के बीच यह संदेश गया कि यहां भाजपा प्रत्याशी के जीतने से क्षेत्र का विकास होगा। वैसे भी इस सीट के जीतने से यूपी में सपा की सरकार तो बन नहीं जाएगी। इसलिए रामवीर को भी आजमा कर देख लिया जाए।
सपा की आपसी खींचतान, जनप्रतिनिधियों ने नहीं लिया प्रचार में हिस्सा
सपा में जिले की सियासत में खींचतान चल रही है। करीब छह महीने बाद भी जिला कार्यकारिणी नहीं बन पाई है। इसका असर कुंदरकी उपचुनाव पर भी पड़ा। सपा के जनप्रतिनिधियों ने बड़े नेताओं के साथ मंच तो साझा किए, लेकिन क्षेत्र में प्रचार-प्रसार में हिस्सा लेने से बचते रहे। वहीं, कांग्रेस के ज्यादातर नेताओं ने भी चुनाव प्रचार से दूरी बनाए रखी।
हर बार तुर्क मुसलमानों को मौका देने से बंटे मुसलमान
एक ही जाति के दो समुदायों के बीच पुरानी सियासी लड़ाई भी सपा की हार का कारण बना। कुंदरकी सीट पर सबसे अधिक आबादी मुस्लिमों की है। इसमें तुर्क और शेखों की संख्या लगभग बराबर ही है। इसके बावजूद हर चुनाव में सपा तुर्क मुसलमानों पर ही दांव लगाती रही है। इस बार सपा ने इसी समाज के मो. रिजवान को मैदान में उतारा था। सूत्रों का कहना है कि लगातार तुर्क मुसलमानों को ही आगे बढ़ाने को लेकर शेखों में नाराजगी थी, इसलिए शेखजादों ने अपनी उपेक्षा का बदला लेने के लिए भाजपा को वोट देकर अपनी नाराजगी का इजहार किया है।
मुस्लिमों का भरोसा जीतने की रणनीति आई काम
कुंदरकी में सपा को भाजपा ने उसी के दांव से चित कर दिया। जबसे पीएम मोदी ने हरियाणा चुनाव के दौरान मुसलमानों में जातीय खांचे के मुद्दे को उठाया था, तभी से भाजपा की तरफ से मुस्लिमों के बीच तुर्क बनाम राजपूत के मुद्दे को धार दी जा रही थी। उसने हिंदुत्व कार्ड के साथ ही मुस्लिमों के बीच उनकी जातीय प्रतिस्पर्धा को धार देने की नीति पर काम किया। कुंदरकी की जीत से यह भी साफ हो गया है कि भाजपा तुर्क बनाम राजपूत मुसलमान के मुद्दे को लोगों के बीच ले जाने में कामयाब रही। इस सीट पर हिंदुत्व को ज्यादा धार देने के बजाय मुसलमानों को यह भरोसा दिलाने पर फोकस किया गया कि भाजपा उनकी दुश्मन नहीं है।
इसके अलावा रामपुर से सपा सांसद मोहिबुल्लाह नदवी और मुरादाबाद से सांसद रूचिवीरा के बीच की अनबन ने भी मुस्लिम वोटों में बंटवारा किया, जिसे रोकने में सपा नाकाम रही।
